अज़ीब ही एक ग़लतफ़हमी हैं मेरी शख्शियत
कि मैं खुद को बेहद सुलझा हुआ पाता रहा
खुद लगा ना पाया अंदाज़ा-ए-सलाहियत
कि हर काम ऐसे ना-गुंजाईश किये जाता रहा!!
भूलता रहा बड़ा होते होते मैं अपनी तरबियत
कि गलतियाँ कर कर के बस उनको छिपाता रहा
छुपी रहे जहाँ भर से मेरी असलियत
कि नक़ाब पे नक़ाब बेहिसाब चढ़ाता रहा
बनाये रखने को अपनी नज़रो में अपनी अहमियत
कि तन्हाई में यारों "बैर" खुद से निभाता रहा
नासाज़ ना हो ये बे-फ़िज़ूल जो मेरी हैं तबियत
कि हर हाल में बेपरवाह "मान" मुस्कुराता रहा!!
कि मैं खुद को बेहद सुलझा हुआ पाता रहा
खुद लगा ना पाया अंदाज़ा-ए-सलाहियत
कि हर काम ऐसे ना-गुंजाईश किये जाता रहा!!
भूलता रहा बड़ा होते होते मैं अपनी तरबियत
कि गलतियाँ कर कर के बस उनको छिपाता रहा
छुपी रहे जहाँ भर से मेरी असलियत
कि नक़ाब पे नक़ाब बेहिसाब चढ़ाता रहा
कि तन्हाई में यारों "बैर" खुद से निभाता रहा
नासाज़ ना हो ये बे-फ़िज़ूल जो मेरी हैं तबियत
कि हर हाल में बेपरवाह "मान" मुस्कुराता रहा!!