Friday, May 27, 2011

Naashaz

गुज़र आये है वो चमन से बहार की तरह
आँखों में बस गए है इंतज़ार की तरह
कैसे भुला दे उन्हें हम अपनी यादों से
उन्होंने इनकार भी किया तो "इज़हार" की तरह

हम भी वफ़ा एक पत्थर से पाना चाहते है
शायद खुद को आजमाना चाहते है
यादों के बक्से आज भी खुले पड़े है और
ये यादें हो गयी है इस्तहार की तरह

उनको नहीं चाहत  पर हमें  तो उनकी आरज़ू है
दिल को हर लम्हा क्यों कोई जुस्तजू है
उनको तो याद करने से दिन गुज़रता है हमारा
पर हम तो ओझल हुए पुराने विचार की तरह

कि ज़िन्दगी भी अब तो बस यूँ गुजरती है
कि जख्म नहीं है कोई पर पर दिल के किसी कोने में एक आह निकलती है
बेसुरी सी बिन साज़ की होती है हर ग़ज़ल अब तो
कि लब भी जिनके हिलते थे सितार की तरह

"श्रेयस" अब तो ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी में तुम भी हार गए
कभी तो लगता था तुम हो शातिर किसी भ्रष्ट सरकार की तरह